Thursday, August 25, 2022

लहसून


लहसुन (एलियम सेटाइवम)

लहसुन (एलियम सेटाइवम) एक षल्क कंदीय फसल है। जिसे प्याज के बाद सर्वाधिक उगाया जाता है। मसाले वाली फसलों में इसका प्रमुख स्थान है। इसका प्रयोग आयुर्वेदिक दवाओं में किया जाता है। इसमे ं विटामिन सी एवं प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। इससे एक प्रकार का तेल निकलता है जिसे डाई एलाईल डाई सल्फाइड कहते है। लहसुन में जो विषिश्ट गंध होती है वह इसी के कारण पाई जाती है।इसमें कीट नाषक गुण भी पाये जाते है। मध्यप्रदेष में इसे रबी के मौसम में उगाया जाता है।

 

जलवायु-

लहसुन की खेती के लिए मध्यम ठंड और गर्म वाले मौसम की आवष्यकता होती है। अत्यधिक गर्म एवं लम्बे व षुक्क दिन इसे षल्क कंदों की वृद्धि हेतु उचित नहीं होते है। परन्तु कंद बनने के लिए लंबे व षुश्क दिन फायदेमंद है। छोटे दिन फायदेमंद है। छोटे दिन इसके कंद निर्माण के लिए उपयुक्त रहते है। परन्तु कंदों के बनने के बाद यदि तापमान कम हो जाये तो कंदों काविकास और अधिक अच्छा होता है।


भूमि-

लहसुन की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है लेकिन उचित जल निकास वाली दोमट मिट्टी जिमें जीवांष की मात्रा भरपूर हो अच्छी रहती है।


खेत की तैयारी-

लहसुन की जड़े भूूमि की उपरी सतह से करीब 15 सेमी गहराई तक ही सीमित रहती है अतः भूमि की अधिक गहरी जुताई की आवष्यकता नहीं है, इसलिए दो जुताई करके, हेरो चलाकर भूमि को भुरभूरा करके खरपतवार निकालकर समतल कर देना चाहिए। जुताई के समय भूमि के उपयुक्त मात्रा में नमी आवष्यक है अन्यथा पलेवा देकर जुताई करे। सिंचाई की सुविधानुसार खेत को छोटी-छोटी क्यारियों में बांट लेना चाहिए।


खाद एवं उर्वरक-

लहसुन की अधिक पैदावार के लिए संतुलित मात्रा में खाद देना आवष्यकता है। इसके लिए 300 क्विं. गोबर की खाद नत्रजन 100 किग्रा.,फुास्फोरस 50 किग्रा. एवं पोटाष 50 किग्रा प्रति हेक्टेयर के मान से दें। गोबर की खाद भूमिं की तैयारी के समय डालें। नाइट्रोजन आधी मात्रा फास्फोरस एवं पोटाष पूरी मात्रा बुवाई के दो दिन पहले बेसल डेªसिंग के रूप में तथा षेश मात्रा बुआई के 30 दिनप बाद टापडेªेसिंग के रूप में देनी चाहिए।


उन्नत किस्में

 एग्रीफाउण्ड व्हाईट (जी-41)

 यह प्रजाति गुजरात, मध्यप्रदेष, महाराश्ट्र, कर्नाटक आदि प्रदेषों के लिए भारतीय सब्जी अनुसंधाान (आई.आई.वी.आर.) के द्वारा संस्तुति की जा चुकी है, तथा भारत सरकार द्वारा फरवरी 1989 में अधिसूचित किस्म घोशित कर दी गयी है। षल्क कंद ठोस, त्वचा चांदी की तरह सफेद गूदा क्रीम रंग का, क्लोब बड़े तथा 20-25 प्रत्येक कंद में पाये जाते है। औसत 3.50 से 4.00 सेमी. व्यास वाले षल्क कंद होते हैै। पैदावार 130-140 क्विं/है. है। 150-160 दिनों में तैयार हो जाती है। उत्तरी ीाारत जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेष तथा बिहार में इस प्रजाति में गाठे बनने के बाद बीमारी जैसे झुलसा तथा बैंगनी धब्बा लग जाता है। किन्तु गांठे पहले बन जाती है अतः पैदावार में कोई विषेश अंतर नही पड़ता है।


यमुना सफेद (जी-1)

यह प्रजाति संपूर्ण भारत में उगाने के लिए भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान तथा भारत सरकार के द्वारा संस्तुति की जा चुकी है। इसके षल्क कंद ठोस तथा बाह्य त्वचा चांदी की तरह सफेद, गुदा क्रम रंग का होता है। षल्क कन्दों का व्यास 4-4.5  सेमी होताहै। 25-30 क्लोब एक षल्क कंद में पाये जाते है। इसकी पैदावार 150-160 क्विं प्रति हेक्टर तक प्राप्त हो जाती है यह जाति रोग के प्रति सहनषील है।


 यमुना सफेद-2 (जी-282)

इस प्रजाति के षल्क कन्द ठोस, त्वचा सफेद गूदा क्रीम के रंग का होता है यह किस्म 165-170 दिनों में तैयार हो जाती है। तथा इसकी पैदावार 130-150 क्वि. प्रति हेक्टर प्राप्त हो जाती है। बैगनी धब्बा तथा झुलसा रोग के प्रति सहनषील होती है।


यमुना सफेद-3 (जी-323)

एनएचआर डीएफ द्वारा विकसित इस नयी प्रजाति के पौधे स्वस्थ, पत्तियां चैडी हरी, कंद सफेद बड़ आकारवाले 3.5-4 सेमी, कलिया1.2-125 सेमी आकार की 30-35 प्रतिकंद, 40-42 प्रतिष, भंडारण के लिए उपयुक्त तथा उत्तरी ीाारत में पैदावार के लिए अच्छी पायी गई है।


एग्रीफाउण्ड पार्वती (जी-313)

यह जाति पहाड़ों पर उगाने के लिए उपयुक्त पायी गई है। इसकी बुवाई सितम्बर-अक्टूबर में की जाती है। तथा मई में खुदाई होती है। यह 250 -170 दिनों में तैयार हो जाती है । इसके षल्क कंद बड़े हल्के सफेद बैगनी रंग मिश्रित तथा 10-12 क्लोब वाले होते है। षल्क कंदो का व्यास 5-7 सेमी होता है। 4.0-4.5 ग्राम भार वाले क्लोब तथा गूदा क्रीम रंग का होता है पैदावार 175-200 क्विं. प्रति है. तक हो जाती है। यह जाति भी निर्यात के लिए अच्छी पाई गई है।


बुवाई का समय-

उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसकी अच्छी पैदावार लेने के लिए इसकी बुवाई अक्टूबर से नवम्बर तक करनी चाहिए।


बीज की मात्रा-

लहसुन के षल्क कंदों में कलियां होती है। इन्ही कलियों को गांठी से अलग करके बुवाई की जाती है। एक हेक्टर क्षेत्र के लिए 4-5 क्वि. कलियों की आवष्यकता होती है।


बुवाई की विधि-

लहसुन की बुवाई इसकी कलियों द्वारा की जाती है। प्रत्येक गांठ में औसतन 20-30 तक कलियां होती है। कलियों की तैयार की गई क्यारियों में नुकीले भाग का उपर रखते हुए 5-7 सेमी गहराई पर बोना चाहिए।


निराई-गुड़ाई-

खरपतवारों की रोकथाम के लिए इसकी समय-समय पर निराई-गुराई करना आवष्यक है। पहली निराई-गुड़ाई हैण्ड हो या खुरपी द्वारा बोने के 20-25 दिन बाद करें। इसके बाद दूसरी निराई-गुड़ाई के 20-25 दिन बाद करनी चाहिए। हाथ से निराई-गुड़ाई करना संभव न हो तो उस स्थिति में पेन्डीमेथेलीन नामक दवा 3.5से 4.0 लीटर 650 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के 2-3 दिन के बाद छिड़काव करे।

सिंचाई- कलियों की बुआई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए। उसके बाद 10-15 दिन के अंतराल में सिंचाई करते रहे।


कीट एवं रोग प्रबंधन-

प्रमुख कीट- लहसुन का थ्रिप्स (थिप्स टेबेकाई)

ये कीट छोटे आकार के होते है तथा इनका आक्रमण तापमान में वृद्धि के साथ तीव्रता से बढ़ता है और मार्च में अधिक स्पश्ट दिखाई देता है। इन कीटों द्वारा रस चूसने से पत्तियां कमजोर हो जाती है। तथा आक्रमण के स्थान पर सफेद चकते पड़ जाते है। इस कीट के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17ण्8 एस एल (0.3-0.5 मिली प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करें आवष्यक हो तो 15 दिन बाद दोहरावे। नीम तेल 5 मिली को एक लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें। अधिक प्रकोप की अवस्था में डायमिथोएट की 2 मिली मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।


लहसुन की मक्खी (हाईलिमिया एंटीकुआ)-

यह मक्खी लहसुन की फसल का प्रमुख हानिकारक कीट है। जो अपने मैगट पौधों के भूमी के पास वाले भाग, आधारीय तने में पाये जाते है। मैगटों की संख्या 2-4 तक हो सकती है। इनसे भूमि के पास वाले तने का भाग सड़कर नश्ट हो जाने से पूरा पौधा सूख जाता है। कभी-कभी इस कीट द्वारा फसल को भारी मात्रा में क्षति होती है। इस कीट के नियंत्रण के लिए फसल की रोपाई से पूर्व, खेत की तैयारी करते समय नीम की खली-खाद 3-4 क्विंत्र प्रति एकड़ की दर से जुताई कर भूमि में मिलाए। खेत की तैयारी करतेे समय कीटनाषी क्लोरोपायईरिफाॅस 5 प्रतिषत  की दर से जुताई करते समय भूमि में मिलाए कीटनाषी क्वीनालफाॅस 2 मिली प्रति लीटर पानी की दस से आवष्यकतानुसार मात्रा का घोल तैयार कर षाम के समय 2-3 छिड़काव करे।


प्रमुख रोग-

 आर्द्रगलन (डैम्पिंग आफ)-

यह बीमारी प्रायः जहां लहसुन की पौध उगायी जाती है, मिलती है व मुख्य रूप से पीथियम, फयूजेरियम तथा राइजाक्टोनिया कवकों द्वारा होती है। इस बीमारी का प्रकोप खरीफ मौसम में ज्यादा होता है। क्योंकि उस समय तापमान तथा आर्दता ज्यादा होते है। यह रोग दो अवस्थाओं में होता है। बीज में अंकुरण निकलने के तुरन्त बाद, उसमे सड़न रोग लग जाता है जब पौध जमीन से उपर आने से पहले ही मर जाती है। बीज अंकुरण के 10-15 दिन बाद जब पौध जमीन की सतह से उपर निकल आती है। तो इस रोग का प्रकोप दिखता है। पौध के जमीन की सतह लगे हुए स्थान पर सड़न दिखई देती है। और आगे पौध उसी सतह से गिरकर मर जाती है। इस रोग की रोकथाम के लि. बीज बोने के पूर्व पौधषाला की मिट्टी कार्बेन्डाजाईम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर उपचारित करे। जड़ और जमीन को ट्राईकोडर्मा विरडी के घोल 5.0 ग्राम प्रति लीटर पानी से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए। पानी का प्रयोग कम करना चाहिए। खरीफ मौसम में पौधषाला की क्यारियां जमीन की सतह से उठी हुई बनायें जिससे कि पानी इकट्ठा न हो।


पर्पल ब्लाच-

इस बीमारी का कारण आल्टरनेरिया पोरी नामक कवक (फफूंद) है। यह रोग लहसुन की पत्तियों, तनों तथा बीज डंठलों पर लगती है। रोग ग्रस्त भाग पर सफेद भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जिनका मध्य भाग बाद में बैंगनी रंग का हो जाता है। रोग के लक्षण के लगभग दो सप्ताह पष्चात इन बैंगनी धब्बों पर पृश्ठीय बीजाणुओं के बनने से ये काले रंग के दिखाई देते है। अनुकूल समय पर रोगग्रस्त पत्तियां झुलस जाती हैं तथा पत्ती और तने गिर जाते है। जिसके कारण कन्द और बीज नहीं बन पाते। इस रोग के नियंत्रण के लिए मेन्कोजेब 2-3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अंतराल से दोबार छिड़काव करें। पौध की रोपाई के 45 दिन बाद 0.25 प्रतिषत डाइथेन एम-45 या 0.2 प्रतिषत ब्लाइटाक्स-50 का चिपने वाली दवा मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। यदि बीमारी का प्रकोप ज्यादा हो तो छिड़काव 3-4 बार प्रत्येक 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए।


 काली फफूंदी-

यह एसपरजिलस नाइजर नामक कवक से होता है। इससे लहसुन या लहसुन के बाहरी षल्कों में काले रंग के धब्बे बनते है और धीरे-धीरे सारा भाग काला हो जाता है। एवं कंद बिक्री योग्य नहीं रह जाते। बाहर के प्रभावित षल्क निकालने से कन्द खुले हो जाते है। और बाजार में कम भाव पर बिकते है। लहसुन को अच्छी तरह से नही सुखने तथा भण्डारण में अधिक नमी के कारण इस रोग की समस्या बढ़ती है। रोग की रोकथाम कंदों को छाया में अच्छी तरह सुखाना चाहिए। भण्डारण हमेषा ठण्डे व षुश्क स्थानों पर करना चाहिए। भण्डारण से पूर्व भण्डार गृहों को अच्छी प्रकार से रसायनों द्वारा उपचारित कर लेना चाहिए।

ख्.ाुदाई लहसुन की फसल 5 से 6 माह में तैयार हो जाती है। जब पत्तियां पीली पड़ जाए और सूखने लग तो सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। इसके कुछ दिनों बाद कंदों को पौध सहित भूमि से उखाड़ लिया जाता है। इसके बाद इसकी पत्तियों को उपर से बांधकर छोटे-छोटे बन्डल बनाकर रख दिया जाता है। जिन्हे 2-3 दिन धुप में सुखाकर उपर के भाग को काट दिया जाता है।

भण्डारण-लहसुन को कुछ समय के लिए रखना हो तो सामान्य वातावरण में रखा जा सकता है। लेकिन अधिक समय तक रखने के लिए 14-15 डिग्री सेल्सियस तापमान और 60 प्रतिषत आर्द्रता सर्वोत्तम पाये गये है


उपज-

लहसुन की उपज उसकी जातियों, भूमि और फसल के प्रबंधन पर निर्भर करतीहै। एक हेक्टर से 100 से 200 क्विंटल उपज मिल जाती है।

 


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